द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बोकारो, चास और आसपास के क्षेत्र सैनिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण केन्द्र रहे। यहां थलसेना के 81 वेस्ट अफ्रीकन डिविजन, 5 माउंटेन डिविजन एवं अमेरिकी वायु सेना के 444 वें बंबार्डमेंट ग्रुप ने प्रशिक्षण हासिल किया। सभी सैनिक बर्मा में लेफ्टिनेंट जेनरल स्टिलवेल के नेतृत्व में लड़ रही मित्र राष्ट्रों की संयुक्त सेना की करारी हार के बाद यहां लाए गए थे। आजाद हिन्द फौज एवं जापानी सेना ने मित्र राष्ट्रों की संयुक्त सेना को पीछे धकेल दिया था।
चास में वेस्ट अफ्रीकन डिविजन का था कैंप : चास में 81 वेस्ट अफ्रीकन डिविजन के करीब 40 हजार सैनिकों को जंगलों में युद्ध करने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया। उन्हें प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी 5वीं भारतीय डिविजन को सौंपी गयी थी जिसका नेतृत्व मेजर जेनरल हेराल्ड राडन ब्रिग्स कर रहे थे। इस डिविजन को इटालियन, जर्मन सेना, इरिट्रिया, अबीसिनिया तथा अफ्रीका के पूर्वी रेगिस्तान में जंगल में लड़ने का अनुभव था। औपनिवेशिक नीति के तहत अंग्रेजों ने बर्मा जीतने के लिए चास को प्रशिक्षण स्थल के रूप में तब्दील कर दिया। बोकारो का इतिहास नामक पुस्तक के लेखक शिक्षाविद् अनिल कुमार गुप्ता एवं जीत पांडेय के अनुसार प्रशिक्षण के बाद इन डिविजनों को 14वीं ब्रिटिश आर्मी में शामिल किया गया। फरवरी 1944 में इस ब्रिटिश टुकड़ी ने दोबारा बर्मा में जापानियों पर आक्रमण किया। इसमें रॉयल एयर फोर्स का सहयोग रहा। जमीनी सेना में 5वीं एवं 25वीं इंडियन डिविजन शामिल थी। मायू पहाड़ी पर 5वीं बटालियन ने कब्जे का प्रयास किया लेकिन वे असफल रहे। बाद में इस पहाड़ी पर 81वीं वेस्ट अफ्रीकन डिविजन की मदद से कब्जा किया गया। 81वीं वेस्ट अफ्रीकन डिविजन में नाइजीरिया, सियेरा लियोन एवं नामीबिया के सैनिक शामिल थे। यह डिविजन 14 अगस्त 1943 को भारत पहुंची थी। इस डिविजन ने बर्मा (म्यांमार) में दूसरे अराकान मिशन में फरवरी 1944 से मई 1944 तक कालादान घाटी युद्ध में हिस्सा लिया। इसके अलावा 5वीं माउंटेन डिविजन ने भी चास में प्रशिक्षण लिया था। जून 1943 में यह डिविजन चास पहुंची, जहां इसने जंगल में युद्ध करने का विशेष प्रशिक्षण लिया। इस सैन्य टुकड़ी ने भी बर्मा में टिड्डिम युद्ध में हिस्सा लिया और पहली बार किसी जापानी टुकड़ी को दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हराया।
खंडहर कहते हैं कहानी : चास में प्रशिक्षण के दौरान बनाए गए अधिकांश भवन अब खंडहर में बदल गए हैं। ये सभी द्वितीय विश्वयुद्ध की कहानी बयां करते हैं। पिण्ड्राजोरा में एक बड़ा कैंप अथवा मुख्यालय बनाया गया था। पेयजल के लिए जगह-जगह टंकियां बनायी गयी थीं। प्रशिक्षण के लिए बनाए गए भवन दामोदर नदी के तेलमच्चो पुल, पिण्ड्राजोरा, गवई नदी, कुरा एवं ओबरा आदि के पास धनबाद-पुरुलिया रोड पर हैं। पिण्ड्राजोरा से 5 किमी आगे पुरुलिया रोड पर सैनिकों के लिए रेक्स सिनेमा हॉल बनाया गया था। गवई नदी से लगभग दो किमी की दूरी पर सैनिकों का एक कब्रिस्तान अभी तक सुरक्षित है। गवई नदी के तट पर ही एक वाटर फिल्टर प्लांट का अवशेष है। वाहनों के रखरखाव के लिए बनाए गए कुछ प्लेटफार्म भी अब तक सुरक्षित हैं। ओबरा में 50 कमरों का एक मुख्यालय और एक सैनिक अस्पताल था। इन भवनों में 1948 में टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल, छात्रावास एवं बुनियादी स्कूल खोले गए।
श्री राम मूर्ति प्रसाद , द्वारा जागरण में प्रकाशित आलेख
इसी बहाने काफी जानकारी भी मिली। शुक्रिया।
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लो जी, मैं तो डॉक्टर बन गया..
क्या साहित्यकार आउट ऑफ डेट हो गये हैं ?